घड़ियाँ

आज पता नहीं क्यूँ, मेरी घड़ी बहुत बेचैन थी। उसकी सुईयाँ काँप रहीं थी। ऐसा लगता मानों,तीन सखियाँ साथ घूम रही थी, और इसी बचकाने खेल में चक्कर खा गयीं हो। वैसे तो घड़ी के 'चेहरे' में, कोई रेखाएँ या
मुखाकृति नहीं होती,जो उसके मन की बातों को जहाँ के सामने लेते आएं; मगर न जाने क्यों मेरी घड़ी को देख,एक उदासी का गुब्बारा मेरे अंदर भी आ रहा था।
सुबह के सवा दस बजे थे। कभी फिल्मों में ऐसे समय पर कुछ दुःखद होते,मैंने तो नही देखा। अस्पताल के कमरों में न जाने कितनी जानें पहली साँसे भर रही थी,कितनी अपनी आखिरी साँसे गिन रहीं थी,और न जाने कितनों ने दोबारा ज़िन्दगी पायी थी। और मुझ स्वस्थ मानुष के आँखों के सामने ज़िन्दगी की टेप चल रही थी।
मगर इंसान का स्वभाव भी कभी बदला है? अभी भी मैं अपनी गलतियाँ थोड़े ही गिन रहा था,मैं अभी बहाने बना रहा था। खुद पर घृणा भी आती थी,और अपने दिमाग की शातिरता देख,पीठ भी थपथपा लेता था। एक बार जो भगोड़ा हो जाता है,वो ज़िन्दगी भर भगोड़ा ही रहता है।
चाहे जब पिताजी के माथे पर मटके फोड़ने को,उनके पैरों का फिसलना बताया,चाहे जब घर देर आने को कुत्तों से डर का नाम दिया,चाहे आज हुए एक्सिडेंट के लिए,भगवान को कोसना हो। न कभी सच कहा,न कभी खुद दोष लिया।
भला रवि कुमार कभी गलती कर सकता है क्या? अपने सहपाठियों को गिनी पिग बनाना हो,या सहकर्मियों को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करना हो। जब जरा संसार ये काम करता है,तो मैं क्यूँ न करूँ? समझ आज भी नहीं आया,की ये पंक्ति दूसरों को उल्लू बना रही थी,या मुझको।
आज मेरी घडी बहुत बेचैन थी। जरा धीरे चलो। दो घंटे के लिए रुक जाओ! तब तक में बड़े डॉक्टर आ जाएंगे। मैं जानता हूँ कि अभी मेरी आवाज क्यों नहीं सुन सकता,और क्यूँ मैं इतना हल्का महसूस कर रहा हूँ और क्यों मुझे ऐसा लग रहा है कि बार बार एक ही लम्हा जी रहा हूँ। मेरे जैसी पापी आत्मा,के लिये अपने सबसे बड़े दुःख को बार बार जीने की ही सजा निर्धारित की है परमात्मा ने। अपनी ज़िन्दगी के बाद,अपने इकलौते निःस्वार्थ प्यार की मौत को बार बार जी रहा हूँ। दुआ करो मेरे लिए...
                              - महाकाल प्रेमी।

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